Positive khabar:अपने दम पर खड़ी की कंपनी ,दोस्तों का मिला साथ ऐसा रहा सफर

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आतिफ उर रहमान 

अलीगढ : अदनान बताते हैं कि अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन के बाद UK में रहने वाले एक मित्र ने मुझे एमबीए करने का सुझाव दिया। चूंकि मेरे नंबर्स अच्छे थे तो मेरी फीस भी लगभग 40% कम हो गई। जहां 10-12 लाख लगने थे वहां पांच से छह लाख में काम हो गया। इस तरह 2017 में UK पढ़ाई करने चला गया। शुरुआती दिनों में कुछ दोस्तों के साथ रहा फिर अपने डिपार्टमेंट हेड को अपनी प्रॉब्लम बताई तो उन्होंने एक जगह इंटर्नशिप पर लगवा दिया। इससे जो पैसे मिलते थे, जिससे मेरा रहने और खाने का खर्च निकल जाता था। फिर मैंने वहां एक वेयर हाउस में काम किया। इसके बाद अमेजन में भी जॉब की।


क्या करती है कंट्री क्राफ्ट कंपनी

कंट्री क्राफ्ट फाइव स्टार, थ्री स्टार होटल्स और रेस्टोरेंट को टेबल वेयर सप्लाई करती है। कंट्री क्राफ्ट मुरादाबाद से छोटे-छोटे कारीगरों को जोड़कर एक बड़ी टेबल वेयर रेंज बनवाती है और उन प्रोडक्ट्स को आगे सप्लाई करती है जिससे छोटे छोटे कारीगरों को काम में बढ़ावा मिलता है। अभी यह देश के 500 से ज्यादा होटल्स और रेस्टोरेंट में सप्लाई देती है।

मुरादाबाद है इस का बड़ा केंद्र

आधुनिक दौर में हाथ से बने बर्तनों को भी अब मशीनों का सहारा लेना पड़ रहा है। जैसे-जैसे समय बीता जा रहा है मुरादाबाद के कारीगर अब मशीनें पर ज्यादा निर्भर होते जा रहे है। जिससे बड़े ऑर्डर पूरे करने में समय की बचत और जल्दी काम पूरा होता है। मुरादाबाद पीतल हस्तशिल्प के निर्यात के लिए प्रसिद्ध है।


वहां के होटल्स से बिजनेस आइडिया आया

अदनान बताते हैं कि वहां मै अपने दोस्तों के साथ रेस्टोरेंट और होटल जाया करता था। जब वहां खाना परोसा जाता तो बर्तन शानदार हुआ करते थे। ग्राहकों पर इम्प्रेशन डालते थे। कई होटल्स में पता किया तो पता चला इंडिया से ही वह तांबा और पीतल के बर्तन मंगाते हैं। खासकर क्राफ्ट वाले बर्तन। तब मैंने सोचा कि क्यों न भारत में इसकी शुरुआत की जाए। हालांकि, कोर्स कंप्लीट होने के बाद मुझे वहां जॉब मिल रही थी, लेकिन मैं घर लौट गया।



अदनान कहते हैं कि कंट्री क्राफ्ट नाम की कंपनी तो बना दी लेकिन, इसके बारे में लोग जाने उसके लिए खूब मेहनत की। मैंने दोस्तों के साथ मिलकर रात में अलग-अलग शहरों में जाकर खुद दीवारों पर कंपनी के प्रचार प्रसार के लिए पोस्टर चस्पा किए। पैसे के कम थे इसलिए ज्यादातर काम खुद ही करना होता था। इतना ही नहीं कभी पैसे कम होने की वजह से कभी स्टेशन तो कभी बस स्टैंड पर सोना पड़ता था।

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