अलीगढ (शब्द डेस्क ): अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) भारत के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक है, जिसकी स्थापना का मूल मकसद हिंदुस्तानी मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करना और उन्हें सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक रूप से सशक्त बनाना था। इसकी नींव 19वीं सदी के महान समाज सुधारक सर सैयद अहमद खान ने रखी थी, जिन्होंने 1857 की क्रांति के बाद मुस्लिम समुदाय में व्याप्त पिछड़ेपन को दूर करने के लिए शिक्षा को एक हथियार के रूप में चुना। यह आर्टिकल एएमयू की स्थापना के उद्देश्य, हिंदुस्तानी मुसलमानों की शिक्षा, रोजगार और राजनीति में स्थिति, और हाल ही में चर्चा में रहे वक्फ (संशोधन) बिल के प्रभाव को विस्तार से विश्लेषित करता है।
एएमयू की स्थापना की कहानी 1875 से शुरू होती है, जब सर सैयद ने मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल (एमएओ) कॉलेज की नींव रखी। उस समय ब्रिटिश शासन के तहत मुस्लिम समुदाय आधुनिक शिक्षा से दूर था और पारंपरिक मदरसा शिक्षा तक सीमित था। 1857 की क्रांति में मुसलमानों की बड़ी भागीदारी के बाद अंग्रेजों ने उन्हें संदेह की नजर से देखना शुरू कर दिया, जिसके चलते उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति और खराब हो गई। सर सैयद ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और ऑक्सफोर्ड व कैंब्रिज जैसे संस्थानों से प्रेरणा लेकर मुस्लिम युवाओं को पश्चिमी शिक्षा के साथ इस्लामी मूल्यों का समन्वय सिखाने का संकल्प लिया। 1920 में यह कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रूप में स्थापित हुआ। इसका उद्देश्य न केवल शिक्षा प्रदान करना था, बल्कि मुस्लिम समुदाय को रोजगार के अवसरों और राजनीतिक भागीदारी के लिए तैयार करना भी था।
आजादी के बाद से मुस्लिम समुदाय की शैक्षिक स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन यह अभी भी अन्य समुदायों की तुलना में कमजोर है। 2011 की जनगणना के अनुसार, मुसलमानों की साक्षरता दर 68.5% थी, जो राष्ट्रीय औसत 74% से कम थी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट (2006) ने भी इस बात पर प्रकाश डाला कि मुस्लिम समुदाय उच्च शिक्षा में काफी पीछे है। एएमयू ने इस अंतर को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ से निकले छात्रों में भारत के तीसरे राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी और कई अन्य प्रमुख हस्तियाँ शामिल हैं। हालाँकि, राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम छात्रों का उच्च शिक्षा में नामांकन केवल 5% के आसपास है (एनएसएसओ, 2019-20), जो उनकी जनसंख्या के अनुपात (14.2%) से बहुत कम है। एएमयू जैसे संस्थानों ने मुस्लिम युवाओं को शिक्षित करने में योगदान दिया, लेकिन यह प्रयास अभी भी सीमित दायरे तक ही प्रभावी रहा है।
रोजगार के क्षेत्र में भी मुस्लिम समुदाय की स्थिति चिंताजनक है। सच्चर कमेटी के अनुसार, सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व केवल 4.9% था, जबकि निजी क्षेत्र में भी उनकी भागीदारी कम रही। एएमयू ने इस दिशा में प्रशिक्षित पेशेवर तैयार किए, लेकिन सामाजिक-आर्थिक बाधाएँ और भेदभाव ने व्यापक सुधार को रोका। राजनीति में मुसलमानों की स्थिति थोड़ी बेहतर रही है। आजादी के बाद से कई मुस्लिम नेता, जैसे मौलाना अबुल कलाम आजाद और रफी अहमद किदवई, ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि, वर्तमान में संसद में मुस्लिम सांसदों की संख्या उनकी जनसंख्या के अनुपात से कम है। 17वीं लोकसभा (2019-24) में केवल 27 मुस्लिम सांसद थे, जो कुल का 5% से भी कम है। एएमयू ने इस क्षेत्र में भी योगदान दिया, लेकिन समुदाय की व्यापक भागीदारी अभी भी एक चुनौती है।
वक्फ (संशोधन) बिल, जो 2024 में संसद में पेश किया गया, मुस्लिम शैक्षिक संस्थानों, खासकर एएमयू जैसे संस्थानों के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। वक्फ संपत्तियाँ मुस्लिम समुदाय की धार्मिक और शैक्षिक जरूरतों के लिए उपयोग की जाती हैं। एएमयू सहित कई संस्थानों को वक्फ संपत्तियों से आर्थिक सहायता मिलती रही है। प्रस्तावित बिल में वक्फ बोर्ड के अधिकारों में कटौती, सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाने और संपत्तियों के सर्वेक्षण की बात की गई है। इसका मुस्लिम शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, यह एक गंभीर सवाल है।
आर्थिक संसाधनों में कमी: यदि वक्फ संपत्तियों का प्रबंधन सरकार के हाथ में चला जाता है, तो एएमयू जैसे संस्थानों को मिलने वाली धनराशि प्रभावित हो सकती है। इससे छात्रवृत्तियाँ, बुनियादी ढाँचा और अनुसंधान पर असर पड़ सकता है।
संस्थागत स्वायत्तता पर खतरा: वक्फ संपत्तियों पर बढ़ता सरकारी नियंत्रण एएमयू की स्वायत्तता को कमजोर कर सकता है, जो इसके अल्पसंख्यक चरित्र के लिए महत्वपूर्ण है।
शैक्षिक अवसरों में कमी: धन की कमी से गरीब मुस्लिम छात्रों के लिए शिक्षा तक पहुँच और मुश्किल हो सकती है, जिससे समुदाय का पिछड़ापन बढ़ेगा।
पारदर्शिता और सुधार: बिल के समर्थकों का तर्क है कि वक्फ संपत्तियों के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा, जिससे इनका बेहतर इस्तेमाल शिक्षा के लिए हो सकता है।
आधुनिकीकरण: सरकारी निगरानी से वक्फ संपत्तियों का आधुनिकीकरण हो सकता है, जो लंबे समय में शैक्षिक संस्थानों को लाभ पहुँचा सकता है।
समान अवसर: यदि संसाधनों का वितरण व्यवस्थित होता है, तो यह गैर-मुस्लिम छात्रों के लिए भी अवसर बढ़ा सकता है, जिससे एएमयू का समावेशी चरित्र मजबूत होगा।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना का मकसद हिंदुस्तानी मुसलमानों को शिक्षा के जरिए सशक्त करना था, और यह अपने उद्देश्य में काफी हद तक सफल रही है। फिर भी, समुदाय की शिक्षा, रोजगार और राजनीति में स्थिति अभी भी राष्ट्रीय औसत से पीछे है। वक्फ बिल के प्रभाव को लेकर बहस जारी है, लेकिन यह स्पष्ट है कि इसके लागू होने से मुस्लिम शिक्षा पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ सकते हैं। जरूरत इस बात की है कि नीतियाँ बनाते समय समुदाय की शैक्षिक जरूरतों को प्राथमिकता दी जाए, ताकि सर सैयद का सपना साकार हो सके।